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भारतीय धर्म व दर्शन


शताब्दियों तक भारतवर्ष अपनी अर्थव्यवस्था, खगोलीय ज्ञान, ज्योतिष, गणित, रसायन, चिकित्सा, धातुविज्ञान, नौकायन, वैमानिकी, वस्त्र उद्योग, वास्तुकौशल इत्यादि के लिए सम्पूर्ण विश्व में जाना जाता था। किन्तु भारत का वैशिष्ट्य जो रहा व आज भी है – वह है भारत का आध्यात्मिक ज्ञान। अनादि काल से भारत एक ज्ञानपुञ्ज के रूप में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। लगभग 9000 वर्ष पूर्व वाल्मीकि रामायण की रचना हुई, 7000 वर्ष पूर्व महर्षि व्यास ने महाभारत की रचना की, 2000 वर्ष पूर्व नीतिपुस्तक पंचतन्त्र की रचना हुई, तो निस्संदेह अपौरुषेय वेद व उपनिषद का रचनाकाल कल्पनातीत है।

भारतवर्ष में देवता भी जन्म लेने को तरसते हैं। विष्णु पुराण में वर्णन है कि समुद्र के उत्तर व हिमालय के दक्षिण का प्रदेश भारत कहलता हैं व उसकी संतानों को भारती कहते हैं - यहाँ ध्यान देने योग्य है कि संतान शब्द का प्रयोग हुआ है, न कि नागरिक अथवा निवासी का- व देवतागण भी निरंतर यही गान करते हैं कि जिन मनुष्यों ने स्वर्ग अर्थात पुण्य व मोक्ष के मार्ग पर चलने के लिए भारतभूमि में जन्म लिया है, वे मनुष्य हम देवताओं की अपेक्षा अधिक धन्य तथा भाग्यशाली हैं।


उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।

वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥

गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमि-भागे।

स्वर्गापवर्गास्पद मार्गभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात्॥


भारतवर्ष को यह गौरव अपनी आध्यात्मिक संस्कृति, धर्म व दर्शन के कारण प्राप्त हुआ है। यहाँ धर्म व दर्शन व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन का प्राण है व संपूर्ण भारतीय परंपरा का एक अनिवार्य अंग है।


भारतीय दर्शन की विशिष्टता रही है मनीषियों द्वारा प्रज्ञा व तर्क द्वारा अन्वेषण व सिद्धान्त स्थापन जिनका सूत्र अत्यंत संक्षेप व सीमित शब्दों में निहित होता है व जिनपर भाष्य व टीका आदि की रचना होती है। तत्पश्चात वह ज्ञान गुरु शिष्य परंपरा में सुरक्षित रह अक्षुण्ण रूप से संप्रदाय की परंपरा या धार्मिक क्रमानुसार आगे बढ़ता है।


भारतीय दर्शन को स्थापित करने वाले विचारक कोई साधारण लोग नहीं थे, वे थे आध्यात्मिक मार्ग पर तपस्यारत विभूतितुल्य ऋषि जो आज भी प्रातःस्मरणीय हैं व जिनका कार्य चिरकाल तक मानवजाति की आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशास्त्र करता रहेगा। श्रेयस व प्रेयस, करणीय व अकरणीय, धर्म व अधर्म, प्रवृत्ति व निवृत्ति, भय व अभय, बंधन व मुक्ति सदृश विपरीत विचारों के द्वंद के अरण्य में उनके द्वारा प्रतिपादित दर्शन ही मार्गदर्शक होता है। यह विभूतितुल्य ऋषिगण हैं महर्षि कपिल, महर्षि पतंजलि, महर्षि गौतम, महर्षि कणाद, महर्षि जैमिनि और महर्षि बादरायण, व इनके द्वारा प्रतिपादित दर्शन हैं सांख्य , योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। विश्व का प्राचीनतम धर्म व सनातन संस्कृति उनके द्वारा स्थापित धर्मस्तंभों पर टिकी है।


समानान्तर रूप से भारतवर्ष में आगम की परंपरा भी रही व उसमें शैव, शाक्त, व वैष्णवादि दर्शन व उपासना पद्धतियों का उद्भव हुआ। शैव दर्शनों में कश्मीर में कश्मीरी शैव दर्शन, उत्तर भारत में शैवागम, दक्षिण भारत में वीरशैव परंपरा व लिंगायत संप्रदाय व कालांतर में भारत के विभिन्न भागों में कापालिक, पशुपत, कालमुख शैवसंप्रदायों का उदय हुआ । इसी प्रकार शाक्त दर्शन में ईश्वर का पूजन सर्वशक्तिमान जगज्जननी माँ रूप में व उसकी उपासना पद्धति का प्रसरण दशमहविद्याओं के रूप में हुआ; साथ ही योग दर्शन में वर्णित कुंडलिनी शक्ति की साधना शाक्त मार्ग में एक पद्धति बनी। वैष्णव दर्शन ने भगवान विष्णु को आराध्य माना व समय समय पर धरती पर धर्म की संस्थापना हेतु भगवान के अवतरण का प्रतिपादन किया। समानान्तर ही गाणपत्य व सौर पूजन पद्धति व दर्शन का विकास हुआ।


इन सभी दर्शन व उपासना पद्धतियों ने वेद को अंतिम शब्द माना व वेद को मान्यता दी, किन्तु कुछ ऐसे दर्शन भी उद्भित हुए जो वेदविरुद्ध तो नहीं, किन्तु उन्हे वेद अमान्य हैं । अतएव वे नास्तिकदर्शन कहलाए और वे हैं बौद्ध, जैन व चार्वाक दर्शन। धन्य है भारत की भूमि व इस भूमि की ज्ञान परंपरा जिसने उन्हें भी वही सम्मान दिया जो आस्तिक दर्शनों को दिया है।


दर्शन कोई भी हो, उपासना पद्धति कोई हो, चिंतन की एक धारा सभी में निर्बाध रूप से बहती है, और वह है स्वयं की खोज, सत्य का अन्वेषन, व समाज का अभ्युदय। इतने विविध दर्शन, उनकी चिंतन की अनंत धारा, उनकी असंख्य उपासना पद्धतियों का अद्भुत समन्वय केवल भारतवर्ष में ही संभव है।


भारतभूमि पर ज्ञान व दर्शन की धारा अविरल बहती रही व वर्तमान में भी विद्यमान है। आदि शंकराचार्य, अभिनवगुप्त, नागार्जुन, कुमारिल भट्ट, माधवाचार्य, नानक, रमण महर्षि, जद्दू कृष्णमूर्ति व गोपीनाथ कविराज प्रभृत विचारक व दर्शनिकों ने इस ऋषिगंगा को अक्षुण्ण रखा है। और श्रीअरविंद - आधुनिक काल के महर्षि - जिन्होंने आध्यात्मिक चिंतन को नया आयाम दिया है, उन्होंने एक वाक्य में सम्पूर्ण आध्यात्मिक चिंतन को समेट दिया – All Life is Yoga” और यह भारतीय अध्यात्मिकता व भारतीय दर्शन ही है जिसके कारण महर्षि अरविंद ने भविष्यवाणी की थी कि यदि भारत पुनः विश्व गुरु बन जाएगा:


"भारत एक बार फिर एशिया का नेता बनकर समस्त भूमंडल को एकात्मा की शृंखला में आबद्ध करने का महान कार्य सम्पन्न करेगा। भारत की आध्यात्मिकता यूरोप और अमेरिका में प्रवेश कर रही है। इसकी गति थमेगी नहीं, दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जाएगी। वर्तमान विपदाओं के बीच लोगों की आँखें आशा के साथ अधिकाधिक उसकी ओर मुड रही हैं और लोग केवल शास्त्रों का ही नहीं, बल्कि उसकी आन्तरिक और आध्यत्मिक साधना का अधिकाधिक आश्रय ग्रहण कर रहे हैं।"

 

©Arun Vyas. This article may not be reproduced in any form without the permission of the author. Arun Vyas may be contacted at arun@arunvyas.com / arunvyas.com/contact


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”Indian sacred architecture of whatever date, style, or dedication goes back to something timelessly ancient and now outside India almost wholly lost, something which belongs to the past, and yet it goes forward too, though this the rationalistic mind will not easily admit, to something which will return upon us and is already beginning to return, something which belongs to the future.”

                                                         -Sri Aurobindo, The Renaissance in India  

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