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उत्तरायण, मकर संक्रांति व लोहड़ी का तिथि निर्धारण


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ज्योतिष में सूर्य को कालपुरुष का नेत्र कहा गया है - चक्षोः सूर्यो अजायतः। वे ग्रहों के राजा हैं , प्रत्यक्ष देवता हैं, पृथ्वी पर जीवन के सृजक, पोषक व रक्षक हैं। सूर्य जब एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं तो उसे संक्रमण कहा जाता है व उस दिवस को संक्रांति कहते हैं। अतः एक वर्ष में 12 संक्रांतियाँ होती हैं, व मकर संक्रांति का दिवस है जब सूर्य भगवान मकर राशि में प्रवेश करते हैं।


मकर संक्रांति के दो महत्व हैं: एक तो मकर राशि शनि महाराज की राशि है, जो सूर्यभगवान के पुत्र हैं। भारतीय ज्योतिष में इन दोनों ग्रहों को परस्पर शत्रु माना गया है, किन्तु सूर्य भगवान की इस संक्रांति को पिता व पुत्र के मिलन के रूप में देखा जाता है। दूसरा महत्व है कि मकर संक्रांति के दिन से उत्तरायण आरंभ होता है, ऐसी जनमान्यता है। आइए देखें कि उत्तरायण क्या होता है व कब होता है।


हमारी पृथ्वी की धुरी 23.5° टेढ़ी है। पृथ्वी की सतह पर उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव से समान दूरी पर स्थित एक काल्पनिक रेखा है जो पृथ्वी को उत्तरी गोलार्ध व दक्षिणी गोलार्ध में विभाजित करती है। यह भूमध्य रेखा कहलाती है। इस रेखा के उत्तर की ओर 23.5° में कर्क रेखा है (Tropic of Cancer) व दक्षिण की ओर 23.5° में मकर रेखा है (Tropic of Capricorn)। 20 से 22 जून के बीच में सूर्य कर्क रेखा के ऊपर होते हैं। इस रेखा को कर्क रेखा इसलिए कहते हैं क्योंकि इस तिथि को सूर्य कर्क राशि में होते हैं। यहाँ से वे दक्षिण में मकर रेखा की ओर यात्रा आरंभ करते हैं। यहीं से दक्षिणायन आरंभ होता है। 23 सितंबर को सूर्य भूमध्य रेखा पार करते हैं हुए 21 दिसम्बर के लगभग मकर रेखा के ऊपर पहुंचते हैं. इस रेखा को मकर रेखा इसलिए कहते हैं क्योंकि इस तिथि को सूर्य मकर राशि में होते हैं। अब यहाँ से सूर्य उत्तर की और यात्रा आरम्भ करते हैं वापस कर्क रेखा की ओर। यहीं से उत्तरायण आरंभ होता है।


अतः यह स्पष्ट है कि सूर्य की स्थिति मकर रेखा से कर्क रेखा की ओर बढ़ने को उत्तरायण एवं कर्क रेखा से मकर रेखा की वापसी को दक्षिणायन कहते हैं।


प्रश्न यह उठता है कि यदि उत्तरायण 21 दिसंबर को होता है तो हम जनवरी में मकर संक्रांति को उत्तरायण क्यों मनाते है?

लगभग 1,500 वर्ष पूर्व उत्तरायण और मकर संक्रांति एक साथ होते थे। किन्तु पृथ्वी की धुरी के झुकाव के कारण इन खगोलीय घटनाओं में अंतर आया है। जैसे इस वर्ष मकर संक्रांति एक दिवस सरक कर 14 से 15 जनवरी पर आ गई है, व लगभग 75 वर्षों बाद 16 जनवरी को हो जाएगी। सन् 1600 में मकर संक्रांति 9 जनवरी की थी, और 100 वर्ष पश्चात सन् 2600 में 23 जनवरी को होगी। इस से यह स्पष्ट है कि मकर संक्रांति उत्तरायण से दूर होती जा रही है। किन्तु पूर्व में मकर संक्रांति पर उत्तरायण मनाने की जो परंपरा चली वह आज तक चली आ रही है। उत्तरायण व मकर संक्रांति का अंतर इतिहास की एक अन्य अति महत्वपूर्ण घटना से अध्ययन किया जा सकता है, और वह है भीष्म पितामह का देहत्याग। महाभारत के युद्ध के दसवें दिवस अर्जुन ने उन्हें शरशैया पर लिटा दिया था, किन्तु इच्छामृत्यु के आशीर्वाद के कारण उन्होंने उत्तरायण लगने तक अपने प्राण त्यागे नहीं। 58 दिवस शरशय्या पर अपने प्राण पकड़े रहे व माघ शुक्ल अष्टमी को देहत्याग किया। अर्थात उस वर्ष उत्तरायण माघ शुक्ल अष्टमी हुआ था। उस वर्ष मकर संक्रांति नवंबर 2 को थी, व माघ शुक्ल अष्टमी नवंबर 28 को थी, अर्थात उस वर्ष दोनों में 26 दिवस का अंतर था।


ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वकाल में हम उत्तरायण व मकर संक्रांति को पृथक रूप से मनाते थे। सो, हम अब भी यही करें। यदि उत्तरायण मनाना है तो 21 दिसंबर को मनाएं, और मकर संक्रांति मनाना है तो 15 जनवरी को मनाएं।


तिथि सरकने की एक अन्य एतिहासिक घटना ईसाई कैलंडर से जुड़ी है। चौथी शताब्दी में ईसाई धर्म ने यह निर्णय लिया था कि यीशु का जन्म उत्तरायण पर हुआ था, और तब उत्तरायण 25 दिसम्बर को होता था। तब उनके यहाँ जूलियन कैलंडर चलता था। 16वीं शताब्दी तक उत्तरायण जनवरी में जा चुका था। सो पोप ग्रेगोरी ने ग्रेगोरियन कैलेंडर बनाया जिस में 11 दिन गायब कर दिए गए जिससे कि उत्तरायण को 25 दिसम्बर पर लाया जा सके। पर उत्तरायण तो सरकेगा ही, और अब सरक कर 21 दिसम्बर पहुँच गया है।


छह मास के दक्षिणायन में तीन ऋतुएं होती हैं - वर्षा, शरद और हेमंत। दक्षिणायन के समय में रातें लंबी होने लगते हैं व दिन छोटे होने लगते हैं। दक्षिणायन में विवाह, मुंडन, उपनयन आदि विशेष शुभ कार्य निषेध माने जाते हैं, किन्तु दक्षिणायन व्रत, उपवास, तपस्या, धार्मिक कर्मकांड आदि प्रशस्त है। छह मास के उत्तरायण में दिन लंबे और रातें छोटी होनी शुरू हो जाती हैं, व गृह प्रवेश, विवाह समारोह, यज्ञोपवीत, मुंडन तीर्थ यात्रा आदि प्रारंभ हो जाते हैं।


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किन्तु उत्तरायण व मकर संक्रांति के भिन्न होने से मकर संक्रांति का एतिहासिक महत्व घट नहीं जाता। इसी दिन भागीरथ माँ गंगा को ले कर कपिल मुनि के आश्रम गंगासागर पहुंचे थे, अतः मकर संक्रांति के दिवस गंगा स्नान व सूर्य को अर्घ्य देने का विशेष महत्व है। सनातन धर्म के समस्त व्रत त्यौहार चंद्रमा पर आधारित हैं। केवल मकर संक्रांति ही सूर्य पर आधारित है। इस दिन से जाड़ा उतरना आरंभ हो जाता है व ऋतु में परिवर्तन आरंभ होता है, शरद ऋतु की विदाई होने लगती है और बसंत ऋतु का आगमन शुरू हो जाता है। मकर संक्रांति हमारी खेती व फसल कटाई से जुड़ा हुआ है जो असम में बीहू है तो तमिलनाडु में पोंगल, उत्तरप्रदेश में खिचड़ी है तो गुजरात में उत्तरायण और पंजाब में लोहड़ी।


लोहड़ी की बात उठी तो प्रश्न उठता है कि यदि इसका मकर संक्रांति से संबंध है तो इसे हम 13 जनवरी को ही क्यों मनाते हैं? इसका उत्तर है कि यह परंपरा उस काल से पड़ी जब मकर संक्रांति 13 जनवरी को हुआ करती थी। अब जब मकर संक्रांति सरक कर 15 जनवरी को हो रही है, तो उचित रहेगा कि हम लोहड़ी को भी दो दिन आगे सरका दें ।


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Arun Vyas



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